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न्यायिक फैसले: क्या मीडिया की स्वतंत्रता में नई जान फूंक सकते हैं?

written by : *अश्वनी बडगैया अधिवक्ता* _स्वतंत्र पत्रकार_



edited by : ADIL AZIZ

भारत में अभिव्यक्ति की आजादी एक संवैधानिक अधिकार है, लेकिन हाल के दिनों में इस अधिकार पर सरकार द्वारा किए गए नियंत्रण और प्रहार चिंता का विषय बने हुए हैं। सोशल मीडिया और अन्य डिजिटल प्लेटफार्म पर सरकार द्वारा बढ़ाए गए नियंत्रण ने कई सवाल खड़े किए हैं। न्यायिक प्रणाली ने हाल ही में सरकार के इन मंसूबों पर पानी फेरते हुए महत्वपूर्ण फैसले दिए हैं, जिससे मीडिया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बढ़ावा मिला है।

आईटी संशोधन नियम 2023: सेंसरशिप का नया चेहरा?

केन्द्र सरकार ने हाल ही में इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (संशोधित) नियम 2023 को लागू किया था। इसके तहत सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स जैसे फेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब पर साझा की जाने वाली सूचनाओं को नियंत्रित करने के लिए एक फैक्ट-चैक यूनिट (FCU) की स्थापना की गई थी। सरकार ने यह कदम "फर्जी, भ्रामक और झूठी खबरों" को रोकने के उद्देश्य से उठाया था, जिससे सरकार के कामकाज की सही जानकारी जनता तक पहुंचे।

हालांकि, आलोचकों का मानना था कि यह नियम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नियंत्रण लगाने का प्रयास था। इसके जरिए सरकार ऑनलाइन कंटेंट को नियंत्रित करने की कोशिश कर रही थी, जिससे सरकारी नीतियों और कामकाज की आलोचना को दबाया जा सके।

बॉम्बे हाई कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

स्टैंडअप कॉमेडियन कुनाल कामरा और अन्य ने बॉम्बे हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी, जिसमें आईटी संशोधन नियम 2023 की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी। इस मामले में जस्टिस मनीष पिटले और जस्टिस नीला खेडर गोखले ने जनवरी 2024 में विभाजित फैसला सुनाया। जस्टिस पिटले का मानना था कि एफसीयू का उपयोग सेंसरशिप के रूप में होगा, जबकि जस्टिस गोखले ने इसे "फर्जी और दुर्भावनापूर्ण सूचनाओं को रोकने के लिए आवश्यक" बताया।

अंततः मामला जस्टिस ए एस चंदूरकर के पास गया, जिन्होंने सरकार के संशोधित नियम को संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), 19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) का उल्लंघन माना। उनके अनुसार, इन नियमों में 'फर्जी' और 'भ्रामक' जैसे शब्दों की व्याख्या स्पष्ट नहीं थी, जिससे इनका दुरुपयोग हो सकता था।

मीडिया पर नियंत्रण की बढ़ती कोशिशें

नरेंद्र मोदी की सरकार पर आरोप है कि वह मीडिया को नियंत्रित करने के लिए लगातार प्रयासरत है। मीडिया के बड़े हिस्से पर पूंजीपतियों और सरकारी दबाव का शिकंजा कसता जा रहा है। दूरदर्शन पूरी तरह से सरकारी एजेंडे का प्रचारक बन चुका है, जबकि निजी चैनलों की निष्पक्षता भी संदेह के घेरे में है। कई चैनलों के एंकर सरकार के समर्थन में खुलकर अपनी निष्ठा जाहिर करते दिखाई देते हैं।

इसी तरह सोशल मीडिया पर भी, कई प्लेटफॉर्म्स सरकार के पक्ष में प्रचार कर रहे हैं और विपक्ष की आलोचनाओं को दबाने की कोशिश कर रहे हैं। इससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा मंडरा रहा है।

राहुल गांधी और तिरुपति लड्डू विवाद: फर्जी खबरों का फैलाव

हाल में हुए दो घटनाक्रम इसका स्पष्ट उदाहरण हैं। पहला मामला राहुल गांधी द्वारा अमेरिका में दिए गए बयान का है, जिसे भाजपा के मीडिया सेल ने तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया। इसके चलते राहुल गांधी को जान से मारने की धमकियां तक मिलीं। दूसरा मामला तिरुपति लड्डू विवाद का था, जिसमें कांग्रेस पर झूठे आरोप लगाए गए, जबकि इसका कांग्रेस से कोई लेना-देना नहीं था।

क्या सरकार की मंशा सही है?

अगर सरकार वास्तव में सोशल मीडिया पर फेक न्यूज और भ्रामक सूचनाओं को रोकने के प्रति गंभीर है, तो उसे सबसे पहले अपने सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स से इसकी शुरुआत करनी चाहिए। लेकिन मौजूदा परिदृश्य को देखते हुए, ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार का असली मकसद सरकार विरोधी सूचनाओं को रोकना है, न कि समाज में फैली फर्जी खबरों पर अंकुश लगाना।




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सोशल मीडिया: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सेंसरशिप का द्वंद्व

सोशल मीडिया ने पत्रकारिता को पूरी तरह बदल दिया है। यह प्लेटफार्म्स अब फर्जी खबरों के प्रसार का प्रमुख माध्यम बन गए हैं। व्हाट्सएप, फेसबुक और ट्विटर जैसी साइट्स का उपयोग असामाजिक तत्वों द्वारा किया जा रहा है, जिससे समाज में नफरत, हिंसा और असंतोष फैल रहा है।

जरूरत है कि नागरिकों को फर्जी खबरों की पहचान करने और उनसे बचने के तरीकों से परिचित कराया जाए। यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह मीडिया साक्षरता को बढ़ावा दे, जिससे लोग सच और झूठ के बीच अंतर कर सकें।

निष्कर्ष: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा की आवश्यकता

बॉम्बे हाई कोर्ट का फैसला भारतीय लोकतंत्र के लिए एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। इसने सरकार द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाए गए अप्रत्यक्ष प्रतिबंध को निरस्त कर दिया है। यह जरूरी है कि न्यायपालिका और स्वतंत्र मीडिया मिलकर लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करें।

सरकार को चाहिए कि वह मीडिया की स्वतंत्रता का सम्मान करे और फर्जी खबरों से निपटने के लिए एक पारदर्शी और स्वतंत्र प्रक्रिया अपनाए। सोशल मीडिया को नियंत्रित करने की बजाय, सरकार को नागरिकों को सशक्त बनाना चाहिए, ताकि वे सही और गलत के बीच अंतर कर सकें।

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यह ब्लॉग पोस्ट सरकार द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाए गए नियंत्रणों के संदर्भ में बॉम्बे हाई कोर्ट के हालिया फैसले को उजागर करता है

लेखक के निजी विचार परआधारित 

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