खरी-अखरी (सवाल उठाते हैं पालकी नहीं) अपनी विश्वसनीयता खो रहीं अदालतें सर्वोच्च न्यायालय से बेपरवाह दिखते हैं निचले न्यायालय
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written by :अश्वनी बडगैया, अधिवक्ता
and edited by : Adil Aziz अगस्त 18 2024
अफलातून का कथन आज भी कालजयी शाश्वत सत्य है कि कानून के जाल में छोटी मछलियां फंसती हैं मगरमच्छ नहीं, वे जाल फाड़ कर बाहर निकल आते हैं। कानून सबके लिए बराबर है यह दुनिया का सबसे बड़ा झूठ है।
छोटी अदालतों से लेकर सर्वोच्च अदालत द्वारा समय-समय पर दिए गए फैसले भी इस पर अपनी मुहर लगाते दिखाई देते हैं। आजकल तो हाईकोर्ट और निचले कोर्ट के जजों के लिए सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्तियों के दिशा-निर्देश ठीक उसी तरह दिखते हैं जैसे "भैंस के आगे बीन बजाओ, भैंस पड़ी पगुराय"। सुप्रीम कोर्ट के कई न्यायमूर्तियों ने, यहां तक कि सीजेआई ने, अनेकों बार कहा है कि "जमानत नियम है, जेल अपवाद"। मगर देखने में आता है कि हाईकोर्ट और निचली अदालतें सुप्रीम कोर्ट के इस कहे को एक कान से सुनकर दूसरे कान से बाहर निकाल देती हैं, या कह सकते हैं कि वे वरिष्ठ अदालत के कहे को अपने ठेंगे पर रखती हैं।
जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों का अनुपात तकरीबन 4:1 का है, जिसमें सामान्य से लेकर संगीन धाराओं में बंद कैदी शामिल हैं। ये कैदी जमानत के लिए अदालतों में एड़ियां रगड़ रहे हैं, मगर उन्हें जमानत नहीं दी जा रही है। वहीं हत्या और बलात्कार में सजा काट रहे अपराधियों को पैरोल और फर्लो के नाम पर बाहर भेजा जा रहा है। इसका सबसे बड़ा सबूत है हत्या और बलात्कार के जुर्म में आजीवन कारावास की सजा काट रहा बाबा राम रहीम, जिसे पिछले सात सालों में दस बार पैरोल और फर्लो के नाम पर रिहा किया गया है। खास बात यह है कि इस हत्यारे व बलात्कारी को पैरोल व फर्लो पर रिहा तब किया जाता है जब दिल्ली, यूपी, पंजाब, हरियाणा जैसे राज्यों में चुनाव होने वाले होते हैं, जिससे वह अपने रसूख वाले इलाके में मतदाताओं पर प्रभाव डालकर सत्तापक्ष (भारतीय जनता पार्टी) के पक्ष में वोटों का ध्रुवीकरण करा सके। हाल ही में चंद रोज पहले बाबा राम रहीम को फर्लो में रिहा किया गया है। प्रासंगिक है कि उसके बाहर आते ही हरियाणा में विधानसभा चुनाव की घोषणा कर दी गई। इसे संयोग या प्रयोग श्रेणी से हटाकर प्रायोजित श्रेणी में रखा जाना चाहिए। हाल ही में एक और दुष्कर्मी बाबा आशाराम को इलाज कराने के नाम पर पैरोल दी गई है।
देशभर के हाईकोर्ट और निचली अदालतें "जमानत नियम - जेल अपवाद" के उलट "जेल नियम - जमानत अपवाद" पर काम कर रही हैं, मगर हत्या और बलात्कार के सजायाफ्ताओं को पैरोल/फर्लो पर रिहा करने में अत्यधिक उदारवादी दिखती हैं, खासतौर पर तब जब वह दुष्कर्मी असरदार व्यक्ति हो और सत्ता पक्ष को फायदा पहुंचाने का माद्दा रखता हो। न्यायालयों पर ऊंगली इसलिए भी उठाया जाना प्रासंगिक कहा जा सकता है कि बहुमत से चुने गए मुख्यमंत्री, मंत्री, सामाजिक कार्यकर्ता, डॉक्टर, छात्र नेता वर्षों - महीनों से जमानत के अभाव में जेल में बंद हैं। कानून की बारीकियों से अनजान व्यक्ति भी इतना तो समझ ही रहा है कि जेल में बंद मुख्यमंत्री, मंत्री, डॉक्टर, सामाजिक कार्यकर्ता, छात्र नेताओं की जमानत अर्जियां इसलिए खारिज कर दी जा रही हैं कि वे सत्ता पक्ष के लिए चुनौतियां पेश कर रहे हैं। यह भी कहा जा सकता है कि हाईकोर्ट और निचली अदालतें राज्य सरकार के इशारे पर कठपुतलियों की तरह काम कर रही हैं।
जिन राज्यों में गैर-भाजपाई सरकारें हैं, वहां भी हाईकोर्ट और निचली अदालतों के कुछ जजों के फैसलों में पार्टी विशेष की मानसिकता का असर दिखाई देता है, और इसे बल तब मिलता है जब वे जज अधिवार्षिकी पूरी कर या बीच में ही पद त्याग कर दल विशेष को ज्वाइन कर लेते हैं। कह सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति भी इस मानसिकता से अछूते नहीं हैं (जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस अरुण मिश्रा आदि)। सत्तापक्ष से जुड़े दुष्कर्मियों के प्रति सरकारों सहित हाईकोर्ट और निचली अदालतों द्वारा बरती जा रही उदारता को लेकर सुप्रीम कोर्ट के माथे पर चिंता की गहरी लकीरें साफ दिखाई दे रही हैं। हाल ही में आम आदमी पार्टी (आप) नेता मनीष सिसोदिया को जमानत पर रिहा करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर से इसी चिंता का जिक्र किया है। सीजेआई डीवाई चंद्रचूड तो प्रायः अपने हर भाषण में इस बात पर जोर देते रहते हैं कि हाईकोर्ट और निचली अदालतों के जजों को ईमानदारी के साथ न्याय-शास्त्रीय व्याकरण को अंगीकार करने की जरूरत है।
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